सड़े हुए पुरातन से चिपके रहना मोह है मित्रों! चारों
तरफ से दुर्गन्ध आ रही है। समाज-व्यवस्था हो, शासन-व्यवस्था
हो, शिक्षा-व्यवस्था हो, चिकित्सा
व्यवस्था हो। हर तरफ से सड़ान्ध की बदबू आ रही है। यहां तक कि रिश्तों से भी,
परिवार और परिवार के सदस्यों से भी। कितना भी ढकने-दबाने-छिपाने का
प्रयास करो, सड़ी हुई भ्रष्ट व्यवस्था सभी सीमाओं को पार कर
हमारी आँखों के सामने स्पष्ट है।
समाज की धरती सड़ चुकी है। पुराने की अच्छाई मर चुकी
है। गन्दगी बच गयी है सिर्फ, जो जहर घोल रही
है। विषाक्त कर रही है वातावरण को। ‘विजन’ के अभाव में इस सड़े हुए पुराने से ‘कॅम्प्रोमाइजेज’
कर हम काम चला रहे हैं। वह भी किसी तरह।
तोड़ने के लिए तोड़ना सेन्सलेस डिस्ट्रक्शन है,
निरर्थक संहार है। लेकिन नया बनाने के लिए पुराने को तोड़ना निर्माण
है, सृजन की प्रक्रिया है। नया बने, तो
पुराना टूटेगा ही। लेकिन यह टूटना मीनिंगफुल है, सेन्सिबल
है। तोड़ने के उपकरण अलग होते हैं, बनाने के अलग। ताकत दोनों
में चाहिए। तोड़ने और बनाने, दोनों में ताकत की जरूरत पड़ती
है। लेकिन बनाने के लिए जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, वह है विजन, नये की रूपरेखा। अगर आपका विश्वास हो कि
तोड़ने के लिए नहीं तोड़ा जा रहा, बनाने के लिए तोड़ा जा रहा,
तो हमको, आपको और सारे समाज को यह काम करना
चाहिए। अपना तात्कालिक फायदा देखने की आदत बहुतों को है। इसलिए पुराने से चिपके
रहने में जिन्हें फायदा है, वे तो तोड़ने का विरोध करेंगे ही।
और अगर नयी व्यवस्था से साधारण निरीह लोगों को फायदा
होनेवाला हो, तो वे थोड़े-से लोग, जिनके हाथ में सत्ता है, धन-सम्पत्ति केन्द्रित है,
विरोध करेंगे ही।
अभी हाल में ही ‘इण्टरनेट’
पर पढ़ा कि मात्र पच्चासी लोग पृथ्वी की आधी सम्पत्ति के मालिक हैं।
विश्व की प्रसिद्ध डेवलपमेण्ट संस्था ‘ऑक्सफैम’ की रिपोर्ट है यह। शीर्षक है- ‘वर्किंग फॉर द फ्यूचर।’ जिस व्यवस्था के फलस्वरूप ऐसा असन्तुलन (इम्बैलेन्स) खड़ा हुआ है, उसे तो मुहूर्त भर के लिए भी सहन नहीं करना चाहिए। जड़ से निर्मूल कर,
उखाड़ कर ऐसी व्यवस्था को फेंक देनी चाहिए कि भविष्य में दुबारा ऐसी
गलती हमसे न होने पाये।
1947 का अनफिनिश्ड एजेण्डा है मित्रों।
उस समय आजादी की लड़ाई से थके-मांदे लोग पुराने को ही स्वीकार कर, दक्षिण एशिया की अपनी सामाजिक विशिष्टताओं की उपेक्षा कर तात्कालिक
सन्तुष्टि को ही प्राथमिकता दे बैठे। नये के निर्माण की जद्दोजहद नहीं उठा सके।
शायद थक गये थे वे लोग।
आजादी की लड़ाई थकाने वाली हो गयी थी। गाँधी-विनोबा की
बातें भी अनसुनी हो गयी। 1952 के प्रथम आम चुनाव ने नरेन्द्रदेव,
जयप्रकाश, लोहिया, रामनन्दन-जैसे
परिवर्तन के नायकों को रिजेक्ट कर दिया था। सोशलिस्ट पार्टी, जिसके पास नये का विजन-डॉक्युमेण्ट था, रिजेक्ट हो
चुकी थी। तब से 66 साल बीत चुके हैं। हम कॅम्प्रोमाइजेज करते
गये। अपने संविधान और व्यवस्था में चिप्पियाँ लगाते गये। लेकिन मौलिक रूप से ढाँचा
वही पुराना था।
नयी समाज-व्यवस्था, नयी
शासन-व्यवस्था, नयी शिक्षा-व्यवस्था, सब
कुछ नया। पुराने को अलविदा कहना ही होगा मित्रों। पुराना अब किसी काम के लायक ही
नहीं रहा। इतना ही नहीं, पुराना जहर घोल रहा है।
सब कुछ नया हो, मंगलकारी हो
सबके लिये, इसका उत्साह आपके दिल में हो मित्रों। पुराने को
तोड़ कर नया बनाने के लिए विश्वास की जरूरत होगी और आवश्यकता पड़ेगी आपसी भाईचारे की,
प्रेम-स्नेह और संवेदनशीलता की। जगत का नाथ जगन्नाथ हमारे अन्तर में
हो, तो उसकी ताकत के सहारे हम नया बना लेंगे।
और, सिर्फ अपने समाज,
देश को बदलने की बात नहीं, सिर्फ अपने यहाँ
नये को निमंत्रण देने की बात नहीं है। विनोबा का नारा था ‘थिंक
ग्लोबली एक्ट लोकली’। अपना घर नया कर लें। फिर पूरी दुनिया
बदलनी होगी न। शेष दुनिया भी तो नया खोज रही है मित्रों।
लेकिन, फिलहाल अपना घर,
अपना समाज, अपना देश। नये प्रारूप को अपने
यहां स्थापित कर लें। फिर पूरी दुनिया को देंगे वह प्रारूप। पुराना तोड़े बिना नया
बनता नहीं। पुराने से मोह न करें मित्रों, वह सड़ चुका है।
(आध्यात्मिक चिन्तक, तपस्वी, प्रचार से नितान्त दूर, अकेले साधना में लगे उदय राघव जी के विचार दैनिक ‘प्रभात
खबर’ में दिनांक 2 अप्रैल 2014 को प्रकाशित हुए थे। वहीं से उद्धृत।)
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मौजूदा अर्थव्यवस्था उपभोग पर आधारित है। लोग सोचते
हैं कि और अच्छा जीवन हो, सारी सुख-सुविधाएं मिलें, भले ही पर्यावरण पर और दूसरों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता हो।
ऐसे हालात को बदलने के लिए ही एक वैकल्पिक मॉडल की
जरूरत है, जिसमें उपभोक्तावाद न हो। भारत ही ऐसा देश है,
जो यह मॉडल दे सकता है।
भारत, चीन, ब्राजील- जैसे बड़े देशों में सिर्फ भारत के पास ही वैकल्पिक आर्थिक मॉडल
देने की क्षमता है। भारत में इतने संसाधन हैं कि यहाँ सभी को बुनियादी सुविधा मिल
सकती है। इससे वैश्वीकरण के दौर में भारत अलग-थलग नहीं पड़ेगा।
आज आयात काफी अधिक क्यों है,
क्योंकि हम फिजूलखर्ची कर रहे हैं। देश में पब्लिक ट्रांसपोर्ट
सिस्टम पर्याप्त नहीं है। लोग निजी कार की बजाय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल
करने लगें, तो पेट्रो-पदार्थ की खपत दस गुनी कम हो जायेगी।
पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली अत्यंत महँगी होती जा रही
है। विधायकों और सांसदों की विलासित बढ़ती जा रही है। नेताओं की सुरक्षा पर खर्चे
बढ़े हैं। अरबपति सांसदों की संख्या बढ़ रही है। राजनीतिक दलों को हजारों करोड़ रुपये
के चन्दे मिल रहे हैं। यह धनतंत्र है या लोकतंत्र? धनतंत्र
के सहारे देश का भला कैसे हो सकता है?
भारत में राजनेता अपने-आप को शासक मानते हैं,
जबकि यूरोप तथा अमेरिका में नौकरशाह और राजनेता खुद को
पब्लिक-सर्वेण्ट मानते हैं।
पूरी व्यवस्था कुछ लोगों के हाथों में सिमट गयी। देश
में संभ्रान्त वर्ग केन्द्रित नीति अपनायी गयी। इससे संसद में करोड़पति सांसद आने
लगे। राजनीतिक पार्टियाँ अमीरों का संगठन बन कर रह गयीं।
असल में, विकास का मौजूदा
मॉडल सही नहीं है। यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि धनतंत्र है। इसी
धनतंत्र के कारण नक्सलवाद फैल रहा है। सत्ता के लिए आम लोगों की बुनियादी जरूरतों
की बजाय कॉरपोरेट के हित महत्वपूर्ण हो गये हैं....
मौजूदा शासन प्रणाली और सोच को बदलने की जरूरत है।
(जे.एन.यू. के प्रोफेसर अरूण कुमार का
विस्तृत साक्षात्कार 3 अगस्त 2013 के ‘प्रभात खबर’ में प्रकाशित हुआ था। उसी के कुछ अंश।)
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...एक-दो सौ सालों में विशाल नगरीय
व्यवस्थाएं ऊर्जा एवं पर्यावरण संकट की वजह से खत्म हो जायेंगी। आवागमन की
व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ये चीन की दीवार और मिश्र के पिरामिड की तरह खण्डहर
बनकर नुमाइश की चीजें बन जायेंगी।
...जिस तरह से औद्योगिक विकास हो रहा है,
उससे अब किसी परमाणु युद्ध की जरूरत नहीं है। औद्योगीकरण ही विश्व
को बर्बाद करने के लिए काफी है। पर्यावरण की जो स्थिति बन रही है, उससे कहीं-न-कहीं हम लोग उस स्थिति की ओर बढ़ते जा रहे हैं।
(7 जून 2012 के ‘प्रभात खबर’ में प्रकाशित वरिष्ठ समाजवादी चिन्तक
सच्चिदानन्द सिन्हा के साक्षात्कार से उद्धृत।)
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कहीं आपने भारत के किसी दल या राजनीतिक खेमे में यह
चर्चा सुनी कि इस देश को महान बनाने का दस्तावेज हमने तैयार किया है;
हम इस राष्ट्रीय बहस चला रहे हैं; हम
गाँव-गाँव जायेंगे, घर-घर जायेंगे और राजनीति में नयी इबारत
लिखेंगे?
भारतीय राजनीति सड़ गयी है। इसकी मौजूदा लाश को तुरन्त
दफना देना ही शुभ होगा। इसमें नयी हवा, नयी ऊर्जा
चाहिए। नयी सृष्टि, नये विचार की ताकत चाहिए और नया खून
चाहिए, तब शायद कहीं मौलिक ढंग से अपनी चुनौतियों को हम
देख-समझ पायेंगे।
(7 अक्तूबर 2012
के ‘प्रभात खबर’ में सम्पादक हरिवंश जी
ने लिखा था।)
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हालाँकि लोग अक्सर चर्चा करते हैं कि जब देश में
अधिकतर नेता भ्रष्ट हैं और अधिकतर पार्टियाँ प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में तब्दील
हो चुकी हैं, तो जनता के पास विकल्प क्या होगा?
विकल्पहीनता का प्रश्न भारतीय मानस को मथता रहता है। लेकिन एक सच यह
भी है कि प्रत्येक का विकल्प हमेशा ही मौजूद रहता है, भले ही
अवाम उसे पहचानने में देरी करे। कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की
परिभाषा में लिखा है कि ‘आदमी कुछ करे या नहीं करे, नियति चुपचाप बैठी नहीं रहती है। वह हमेशा घटनाओं के संघर्ष से कुछ न कुछ
नया करती रहती है।’ मार्क्स की यह परिभाषा वैसे दम्भी दलों
और नेताओं के लिए एक सबक है, जो समझते हैं कि उनका कोई
विकल्प नहीं है!
प्रचण्ड वेग से बहती धारा अपना रास्ता स्वयं खोज लेती
है। इसी प्रकार, भारतीय राजनीति की कोई अनजान धारा सभी
दम्भी विकल्पों को ध्वस्त कर दे, तो कोई आश्चर्य नहीं। और
यही एक सच्चे लोकतंत्र की विशेषता भी है।
(3 जनवरी 2013 के ‘प्रभात खबर’ में बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष
गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु जी का एक आलेख प्रकाशित हुआ था। उसी का अन्तिम पाराग्राफ
है यह।)
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प्रसन्नता की बात है कि क्रोनी पूँजीवाद (चहेतों को
लाभ पहुँचाने वाला यानि लँगोटिया पूँजीवाद) ज्यादा समय तक टिकता नहीं। क्रोनी
पूँजीवाद से निबटने का रास्ता क्रान्ति का है। सरकार के सामने विकल्प है कि क्रोनी
पूँजीवाद को स्वयं त्याग दे या फिर क्रान्ति का सामना करे।
(22 जनवरी 2013 के
‘प्रभात खबर’ में प्रकाशित डॉ. भरत
झुनझुनवाला के आलेख से उद्धृत।)
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मैं तो केवल सर्वनाश देख सकता हूँ। भविष्य में क्या
होगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता। पर समाज विचलित हो
रहा है। जनता की नाराजगी बढ़ रही है। मेरा मानना है कि संसद वर्तमान स्थिति को
रोकने की हालत में नहीं है। सभी पार्टियाँ इन नीतियों (उदारीकरण) की समर्थक हैं,
और सांसदों में सड़क पर आने का दम नहीं है।
मुझे तो लगता है कि एक लाख लोग अगर संसद को घेर लें,
तो शायद कुछ हो।
(30 जुलाई 1998 के
‘जनसत्ता’ में प्रकाशित वयोवृद्ध
अर्थशास्त्री डा. अरुण घोष (अब दिवंगत) के साक्षात्कार से उद्धृत अंश।)
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हमारे देश की सभी संस्थाएं (इंस्टीट्यूशन्स) खोखली हो
चुकी हैं और संविधान भी शक्तिहीन हो चुका प्रतीत होता है।
हमारे सांसदों की बड़ी संख्या की आपराधिक पूर्ववृत्ति
है। हमारे ज्यादातर नेताओं को भारत से सच्चा प्यार नहीं है। वे ऐसे दुष्ट हैं,
जो सुधर नहीं सकते। वे देश को लूटने में लगे हैं। वह देश का धन
विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में जमा कर रहे हैं। धार्मिक और जातीय दंगे भड़का कर
सांप्रदायिक और जातिगत वोटबैंक बनाते हैं। बड़े स्तर पर हमारी अफसरशाही
(ब्यूरोक्रेसी) भ्रष्ट हो चुकी है। और दुख की बात है कि यही स्थिति न्यायपालिका के
एक हिस्से की भी है, जो किसी मामले के निपटारे में अधिक और
असामान्य समय लेती है। सामन्तों के द्वारा हमारे लोकतंत्र का अपहरण कर लिया गया है
और अब अधिकांश जगहों पर धार्मिक और जातिगत आधार पर चुनाव होते हैं। किसी को भी
उम्मीदवार के गुणों की परवाह नहीं है।
भारत में भयानक गरीबी है,
व्यापक बेरोजगारी है, व्यापक कुपोषण है। आम
जनता के बड़े हिस्से के लिए स्वास्थ्य सेवा नदारद है। हमारे आधे से ज्यादा बच्चे
कुपोषित हैं। खाद्य-पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं। भारत के कई हिस्सों-
विदर्भ, गुजरात आदि- में किसान बड़ी संख्या में आत्महत्या कर
रहे हैं। अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के खिलाफ
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भेदभाव जारी है। कई इलाकों में ऑनर किलिंग, दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या रोज की आम घटनाएँ हो
चुकी हैं। ज्योतिष और अन्धविश्वास चरम पर है, यहाँ तक कि ‘पढ़े-लिखे’ कहे जानेवाले लोगों के बीच भी। फर्जी बाबा
भोले-भाले आम लोगों को मूर्ख बनाने में लगे हैं। भारत में हर चीज प्रदूषित है।
भारत के ज्यादातर शहर नरक बन चुके हैं- बिल्कुल नहीं रहने लायक।
और हमारे नेता, हमारे ‘रहबर’ नीरो की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जो रोम जलने के दौरान बाँसुरी बजाने में मस्त था; या
फिर, फ्राँसीसी क्रान्ति के पूर्व बोर्बोन्स की भांति
व्यवहार कर रहे हैं। ऐसे समय में मुझे याद आता है 20 अप्रैल 1653 का दिन, जब ऑलिवर क्रॉमवेल अपने सैनिकों के साथ
ब्रिटिश संसद में घुसा था और वहां मौजूद सदस्यों से उसने कहा थाः
”यह मेरे लिए सही मौका है, आपके बैठने की इस जगह को खत्म कर देने का, जिसे आपने
हर तरह से अपमानित किया है, अपनी बुरी आदतों से अपवित्र किया
है। आप अराजक लोग हैं। अच्छी सरकार के दुश्मन हैं। किराये के टट्टू हैं। अभागों के
झुण्ड हैं। आप चाहते हैं कि इसाउ आपके देश को आलुओं के भाव बेच दे, जैसे चन्द रुपयों के लिए जूडस ने अपने प्रभु को धोखा दिया था।
”क्या आपके अंदर एक भी अच्छा गुण बचा है?
क्या ऐसा एक भी अवगुण बचा है, जो आपमें नहीं
है? आप तो उतने धार्मिक भी नहीं रहे, जितना
मेरा घोड़ा है। सोना आपका भगवान है, रिश्वत के लिए आप में से
किसने अपना विवेक नहीं खत्म कर डाला है? क्या आपके बीच ऐसा
कोई व्यक्ति है, जिसे राष्ट्रमण्डल की बेहतरी की जरा-सी भी
चिन्ता है? आप अनैतिक लोग! क्या आपने इस पवित्र स्थल को
अपवित्र नहीं किया है? आपके अनैतिक सिद्धान्तों और दुष्ट
कारनामों ने इस ईश्वर के मंदिर को चोरों के अड्डे में तब्दील नहीं कर दिया है?
”आपलोग पूरे राष्ट्र के लिए अप्रिय और
असह्य हो गये हैं। आपको जनता ने अपनी शिकायतों के निवारण के लिए यहां रखा था,
और आप यह सब भूल गये। इसलिए, इन सस्ते-चमकते
आभूषणों को छीन लो और दरवाजों को बन्द कर दो। किसी अच्छी चीज के लिए आप यहां बहुत
देर तक बैठ लिये। मैं कहता हूँ- हटिए। ईश्वर के लिए यहां से जाईए।“
सैनिकों ने एसेम्बली हॉल से सभी सांसदों को बाहर निकाल
दिया और फिर वहां ताला लगा दिया। मुझे लगता है कि भारतीय संसद का भी यही हाल
होनेवाला है। व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अब जरूरी हो गया है। अब टालमटोल नहीं
चलेगा। संविधान अब शक्तिहीन हो गया है। भारत की पूरी व्यवस्था,
हमारे इंस्टीट्यूशन्स समेत, एक ऐसे मकान की
तरह हो गया है, जो पूरी तरह से जीर्ण-शीर्ण है। पुनरुद्धार
से कुछ भी हासिल नहीं होगा। पहले इसे ध्वंस करें, फिर
नवनिर्माण, यही समय की पुकार है। हमें नयी न्यायोचित समाज
व्यवस्था बनानी है, जहां सिर्फ मुट्ठी भर नहीं, बल्कि हर एक इन्सान एक अच्छी जिंदगी जिये।
लेकिन इसे इस व्यवस्था के भीतर से हासिल करना मुमकिन
नहीं है। हमारे देश की समस्याओं का समाधान इस व्यवस्था के बाहर है। इसका मतलब हुआ
कि हमें एक किस्म की फ्राँसीसी क्रांति करनी होगी।
(सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व-न्यायाधीश
मार्कण्डेय काटजु का एक विशेष आलेख 23 अगस्त 2015 के ‘प्रभात खबर’ में अनूदित
होकर प्रकाशित हुआ था- मूल आलेख अँग्रेजी समाचार पत्रिका ‘आउटलुक’
के स्वाधीनता दिवस विशेषांक’ 2015 में छपा था।
उसी के कुछ अंश।)
***
अन्त में, 29 जुलाई 2012 के ‘प्रभात खबर’ में प्रकाशित
डॉ. एन.के. सिंह के आलेख ‘आने ही वाला है धरती का टिपिंग
प्वाइण्ट’ का जिक्र, जिसमें बताया गया
था कि धरती के 43 प्रतिशत जंगल समाप्त हो चुके हैं;
2025 तक 50 प्रतिशत जंगल समाप्त हो जायेंगे।
इसके बाद हम चाह कर भी अपने पर्यावरण को पहले-जैसा नहीं बना पायेंगे। इसे
वैज्ञानिकों ने ‘Point to No return’ कहा है।
यानि, हमारे पास समय
ज्यादा नहीं बचा है!