अगर नेताजी सुभाष “दिल्ली पहुँच” जाते, तो जो तीन काम वे सबसे पहले करते, वे होते- 1. “औपनिवेशिक” शासन व्यवस्था को पूरी तरह से हटाकर समाजवादी किस्म की एक भारतीय व्यवस्था कायम करना, 2. देश के गद्दारों को राजनीति की मुख्यधारा से अलग करना (शायद वे उन्हें निर्वासित ही कर देते) और 3. भारतीय प्रशासन, पुलिस एवं सेना के सिर से “ब्रिटिश हैंग-ओवर” का भूत (अधिकारियों द्वारा जनता एवं मातहतों को गुलाम समझने की मानसिकता) उतारना। इसके बाद वे निम्न पाँच काम करते- 1. दस (या बीस) वर्षों के अन्दर हर भारतीय को सुसभ्य, सुशिक्षित, सुस्वस्थ एवं सुसंस्कृत बनाना, 2. हर हाथ को रोजगार देते हुए दबे-कुचले लोगों के जीवन स्तर को शालीन बनाना, 3. गरीबी-अमीरी के बीच की खाई को एक जायज सीमा के अन्दर नियंत्रित रखना, 4. देशवासियों को राजनीतिक रूप से इतना जागरूक बनाना कि शासन-प्रशासन के लोग उन पर हावी न हो सकें और 5. प्रत्येक देशवासी के अन्दर “भारतीयता” के अहसास को जगाना। इसके बाद ही वे नागरिकों के हाथों में “मताधिकार” का अस्त्र सौंपते। देखा जाय, तो यह अवधारणा आज भी प्रासंगिक है और इसी आधार पर यह दसवर्षीय “भारतीय राष्ट्रीय सरकार” का घोषणापत्र प्रस्तुत किया जा रहा है।

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

प्रस्तावना

 सड़े हुए पुरातन से चिपके रहना मोह है मित्रों! चारों तरफ से दुर्गन्ध आ रही है। समाज-व्यवस्था हो, शासन-व्यवस्था हो, शिक्षा-व्यवस्था हो, चिकित्सा व्यवस्था हो। हर तरफ से सड़ान्ध की बदबू आ रही है। यहां तक कि रिश्तों से भी, परिवार और परिवार के सदस्यों से भी। कितना भी ढकने-दबाने-छिपाने का प्रयास करो, सड़ी हुई भ्रष्ट व्यवस्था सभी सीमाओं को पार कर हमारी आँखों के सामने स्पष्ट है।

समाज की धरती सड़ चुकी है। पुराने की अच्छाई मर चुकी है। गन्दगी बच गयी है सिर्फ, जो जहर घोल रही है। विषाक्त कर रही है वातावरण को। विजनके अभाव में इस सड़े हुए पुराने से कॅम्प्रोमाइजेजकर हम काम चला रहे हैं। वह भी किसी तरह।

तोड़ने के लिए तोड़ना सेन्सलेस डिस्ट्रक्शन है, निरर्थक संहार है। लेकिन नया बनाने के लिए पुराने को तोड़ना निर्माण है, सृजन की प्रक्रिया है। नया बने, तो पुराना टूटेगा ही। लेकिन यह टूटना मीनिंगफुल है, सेन्सिबल है। तोड़ने के उपकरण अलग होते हैं, बनाने के अलग। ताकत दोनों में चाहिए। तोड़ने और बनाने, दोनों में ताकत की जरूरत पड़ती है। लेकिन बनाने के लिए जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, वह है विजन, नये की रूपरेखा। अगर आपका विश्वास हो कि तोड़ने के लिए नहीं तोड़ा जा रहा, बनाने के लिए तोड़ा जा रहा, तो हमको, आपको और सारे समाज को यह काम करना चाहिए। अपना तात्कालिक फायदा देखने की आदत बहुतों को है। इसलिए पुराने से चिपके रहने में जिन्हें फायदा है, वे तो तोड़ने का विरोध करेंगे ही।

और अगर नयी व्यवस्था से साधारण निरीह लोगों को फायदा होनेवाला हो, तो वे थोड़े-से लोग, जिनके हाथ में सत्ता है, धन-सम्पत्ति केन्द्रित है, विरोध करेंगे ही।

अभी हाल में ही इण्टरनेटपर पढ़ा कि मात्र पच्चासी लोग पृथ्वी की आधी सम्पत्ति के मालिक हैं। विश्व की प्रसिद्ध डेवलपमेण्ट संस्था ऑक्सफैमकी रिपोर्ट है यह। शीर्षक है- वर्किंग फॉर द फ्यूचर। जिस व्यवस्था के फलस्वरूप ऐसा असन्तुलन (इम्बैलेन्स) खड़ा हुआ है, उसे तो मुहूर्त भर के लिए भी सहन नहीं करना चाहिए। जड़ से निर्मूल कर, उखाड़ कर ऐसी व्यवस्था को फेंक देनी चाहिए कि भविष्य में दुबारा ऐसी गलती हमसे न होने पाये।

1947 का अनफिनिश्ड एजेण्डा है मित्रों। उस समय आजादी की लड़ाई से थके-मांदे लोग पुराने को ही स्वीकार कर, दक्षिण एशिया की अपनी सामाजिक विशिष्टताओं की उपेक्षा कर तात्कालिक सन्तुष्टि को ही प्राथमिकता दे बैठे। नये के निर्माण की जद्दोजहद नहीं उठा सके। शायद थक गये थे वे लोग।

आजादी की लड़ाई थकाने वाली हो गयी थी। गाँधी-विनोबा की बातें भी अनसुनी हो गयी। 1952 के प्रथम आम चुनाव ने नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश, लोहिया, रामनन्दन-जैसे परिवर्तन के नायकों को रिजेक्ट कर दिया था। सोशलिस्ट पार्टी, जिसके पास नये का विजन-डॉक्युमेण्ट था, रिजेक्ट हो चुकी थी। तब से 66 साल बीत चुके हैं। हम कॅम्प्रोमाइजेज करते गये। अपने संविधान और व्यवस्था में चिप्पियाँ लगाते गये। लेकिन मौलिक रूप से ढाँचा वही पुराना था।

नयी समाज-व्यवस्था, नयी शासन-व्यवस्था, नयी शिक्षा-व्यवस्था, सब कुछ नया। पुराने को अलविदा कहना ही होगा मित्रों। पुराना अब किसी काम के लायक ही नहीं रहा। इतना ही नहीं, पुराना जहर घोल रहा है।

सब कुछ नया हो, मंगलकारी हो सबके लिये, इसका उत्साह आपके दिल में हो मित्रों। पुराने को तोड़ कर नया बनाने के लिए विश्वास की जरूरत होगी और आवश्यकता पड़ेगी आपसी भाईचारे की, प्रेम-स्नेह और संवेदनशीलता की। जगत का नाथ जगन्नाथ हमारे अन्तर में हो, तो उसकी ताकत के सहारे हम नया बना लेंगे।

और, सिर्फ अपने समाज, देश को बदलने की बात नहीं, सिर्फ अपने यहाँ नये को निमंत्रण देने की बात नहीं है। विनोबा का नारा था थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली। अपना घर नया कर लें। फिर पूरी दुनिया बदलनी होगी न। शेष दुनिया भी तो नया खोज रही है मित्रों।

लेकिन, फिलहाल अपना घर, अपना समाज, अपना देश। नये प्रारूप को अपने यहां स्थापित कर लें। फिर पूरी दुनिया को देंगे वह प्रारूप। पुराना तोड़े बिना नया बनता नहीं। पुराने से मोह न करें मित्रों, वह सड़ चुका है।

(आध्यात्मिक चिन्तक, तपस्वी, प्रचार से नितान्त दूर, अकेले साधना में लगे उदय राघव जी के विचार दैनिक प्रभात खबरमें दिनांक 2 अप्रैल 2014 को प्रकाशित हुए थे। वहीं से उद्धृत।)

***  

मौजूदा अर्थव्यवस्था उपभोग पर आधारित है। लोग सोचते हैं कि और अच्छा जीवन हो, सारी सुख-सुविधाएं मिलें, भले ही पर्यावरण पर और दूसरों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता हो।

ऐसे हालात को बदलने के लिए ही एक वैकल्पिक मॉडल की जरूरत है, जिसमें उपभोक्तावाद न हो। भारत ही ऐसा देश है, जो यह मॉडल दे सकता है।

भारत, चीन, ब्राजील- जैसे बड़े देशों में सिर्फ भारत के पास ही वैकल्पिक आर्थिक मॉडल देने की क्षमता है। भारत में इतने संसाधन हैं कि यहाँ सभी को बुनियादी सुविधा मिल सकती है। इससे वैश्वीकरण के दौर में भारत अलग-थलग नहीं पड़ेगा।

आज आयात काफी अधिक क्यों है, क्योंकि हम फिजूलखर्ची कर रहे हैं। देश में पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर्याप्त नहीं है। लोग निजी कार की बजाय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने लगें, तो पेट्रो-पदार्थ की खपत दस गुनी कम हो जायेगी।

पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली अत्यंत महँगी होती जा रही है। विधायकों और सांसदों की विलासित बढ़ती जा रही है। नेताओं की सुरक्षा पर खर्चे बढ़े हैं। अरबपति सांसदों की संख्या बढ़ रही है। राजनीतिक दलों को हजारों करोड़ रुपये के चन्दे मिल रहे हैं। यह धनतंत्र है या लोकतंत्र? धनतंत्र के सहारे देश का भला कैसे हो सकता है?

भारत में राजनेता अपने-आप को शासक मानते हैं, जबकि यूरोप तथा अमेरिका में नौकरशाह और राजनेता खुद को पब्लिक-सर्वेण्ट मानते हैं।

पूरी व्यवस्था कुछ लोगों के हाथों में सिमट गयी। देश में संभ्रान्त वर्ग केन्द्रित नीति अपनायी गयी। इससे संसद में करोड़पति सांसद आने लगे। राजनीतिक पार्टियाँ अमीरों का संगठन बन कर रह गयीं।

असल में, विकास का मौजूदा मॉडल सही नहीं है। यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि धनतंत्र है। इसी धनतंत्र के कारण नक्सलवाद फैल रहा है। सत्ता के लिए आम लोगों की बुनियादी जरूरतों की बजाय कॉरपोरेट के हित महत्वपूर्ण हो गये हैं....

मौजूदा शासन प्रणाली और सोच को बदलने की जरूरत है।

(जे.एन.यू. के प्रोफेसर अरूण कुमार का विस्तृत साक्षात्कार 3 अगस्त 2013 के प्रभात खबरमें प्रकाशित हुआ था। उसी के कुछ अंश।)

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...एक-दो सौ सालों में विशाल नगरीय व्यवस्थाएं ऊर्जा एवं पर्यावरण संकट की वजह से खत्म हो जायेंगी। आवागमन की व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ये चीन की दीवार और मिश्र के पिरामिड की तरह खण्डहर बनकर नुमाइश की चीजें बन जायेंगी।

...जिस तरह से औद्योगिक विकास हो रहा है, उससे अब किसी परमाणु युद्ध की जरूरत नहीं है। औद्योगीकरण ही विश्व को बर्बाद करने के लिए काफी है। पर्यावरण की जो स्थिति बन रही है, उससे कहीं-न-कहीं हम लोग उस स्थिति की ओर बढ़ते जा रहे हैं।

(7 जून 2012 के प्रभात खबरमें प्रकाशित वरिष्ठ समाजवादी चिन्तक सच्चिदानन्द सिन्हा के साक्षात्कार से उद्धृत।)

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कहीं आपने भारत के किसी दल या राजनीतिक खेमे में यह चर्चा सुनी कि इस देश को महान बनाने का दस्तावेज हमने तैयार किया है; हम इस राष्ट्रीय बहस चला रहे हैं; हम गाँव-गाँव जायेंगे, घर-घर जायेंगे और राजनीति में नयी इबारत लिखेंगे?

भारतीय राजनीति सड़ गयी है। इसकी मौजूदा लाश को तुरन्त दफना देना ही शुभ होगा। इसमें नयी हवा, नयी ऊर्जा चाहिए। नयी सृष्टि, नये विचार की ताकत चाहिए और नया खून चाहिए, तब शायद कहीं मौलिक ढंग से अपनी चुनौतियों को हम देख-समझ पायेंगे।

(7 अक्तूबर 2012 के प्रभात खबरमें सम्पादक हरिवंश जी ने लिखा था।)

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हालाँकि लोग अक्सर चर्चा करते हैं कि जब देश में अधिकतर नेता भ्रष्ट हैं और अधिकतर पार्टियाँ प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में तब्दील हो चुकी हैं, तो जनता के पास विकल्प क्या होगा? विकल्पहीनता का प्रश्न भारतीय मानस को मथता रहता है। लेकिन एक सच यह भी है कि प्रत्येक का विकल्प हमेशा ही मौजूद रहता है, भले ही अवाम उसे पहचानने में देरी करे। कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की परिभाषा में लिखा है कि आदमी कुछ करे या नहीं करे, नियति चुपचाप बैठी नहीं रहती है। वह हमेशा घटनाओं के संघर्ष से कुछ न कुछ नया करती रहती है।मार्क्स की यह परिभाषा वैसे दम्भी दलों और नेताओं के लिए एक सबक है, जो समझते हैं कि उनका कोई विकल्प नहीं है!

प्रचण्ड वेग से बहती धारा अपना रास्ता स्वयं खोज लेती है। इसी प्रकार, भारतीय राजनीति की कोई अनजान धारा सभी दम्भी विकल्पों को ध्वस्त कर दे, तो कोई आश्चर्य नहीं। और यही एक सच्चे लोकतंत्र की विशेषता भी है।

(3 जनवरी 2013 के प्रभात खबरमें बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु जी का एक आलेख प्रकाशित हुआ था। उसी का अन्तिम पाराग्राफ है यह।)

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प्रसन्नता की बात है कि क्रोनी पूँजीवाद (चहेतों को लाभ पहुँचाने वाला यानि लँगोटिया पूँजीवाद) ज्यादा समय तक टिकता नहीं। क्रोनी पूँजीवाद से निबटने का रास्ता क्रान्ति का है। सरकार के सामने विकल्प है कि क्रोनी पूँजीवाद को स्वयं त्याग दे या फिर क्रान्ति का सामना करे।

(22 जनवरी 2013 के प्रभात खबरमें प्रकाशित डॉ. भरत झुनझुनवाला के आलेख से उद्धृत।)

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मैं तो केवल सर्वनाश देख सकता हूँ। भविष्य में क्या होगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता। पर समाज विचलित हो रहा है। जनता की नाराजगी बढ़ रही है। मेरा मानना है कि संसद वर्तमान स्थिति को रोकने की हालत में नहीं है। सभी पार्टियाँ इन नीतियों (उदारीकरण) की समर्थक हैं, और सांसदों में सड़क पर आने का दम नहीं है।

मुझे तो लगता है कि एक लाख लोग अगर संसद को घेर लें, तो शायद कुछ हो।

(30 जुलाई 1998 के जनसत्तामें प्रकाशित वयोवृद्ध अर्थशास्त्री डा. अरुण घोष (अब दिवंगत) के साक्षात्कार से उद्धृत अंश।)

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हमारे देश की सभी संस्थाएं (इंस्टीट्यूशन्स) खोखली हो चुकी हैं और संविधान भी शक्तिहीन हो चुका प्रतीत होता है।

हमारे सांसदों की बड़ी संख्या की आपराधिक पूर्ववृत्ति है। हमारे ज्यादातर नेताओं को भारत से सच्चा प्यार नहीं है। वे ऐसे दुष्ट हैं, जो सुधर नहीं सकते। वे देश को लूटने में लगे हैं। वह देश का धन विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में जमा कर रहे हैं। धार्मिक और जातीय दंगे भड़का कर सांप्रदायिक और जातिगत वोटबैंक बनाते हैं। बड़े स्तर पर हमारी अफसरशाही (ब्यूरोक्रेसी) भ्रष्ट हो चुकी है। और दुख की बात है कि यही स्थिति न्यायपालिका के एक हिस्से की भी है, जो किसी मामले के निपटारे में अधिक और असामान्य समय लेती है। सामन्तों के द्वारा हमारे लोकतंत्र का अपहरण कर लिया गया है और अब अधिकांश जगहों पर धार्मिक और जातिगत आधार पर चुनाव होते हैं। किसी को भी उम्मीदवार के गुणों की परवाह नहीं है।

भारत में भयानक गरीबी है, व्यापक बेरोजगारी है, व्यापक कुपोषण है। आम जनता के बड़े हिस्से के लिए स्वास्थ्य सेवा नदारद है। हमारे आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। खाद्य-पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं। भारत के कई हिस्सों- विदर्भ, गुजरात आदि- में किसान बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के खिलाफ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भेदभाव जारी है। कई इलाकों में ऑनर किलिंग, दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या रोज की आम घटनाएँ हो चुकी हैं। ज्योतिष और अन्धविश्वास चरम पर है, यहाँ तक कि पढ़े-लिखेकहे जानेवाले लोगों के बीच भी। फर्जी बाबा भोले-भाले आम लोगों को मूर्ख बनाने में लगे हैं। भारत में हर चीज प्रदूषित है। भारत के ज्यादातर शहर नरक बन चुके हैं- बिल्कुल नहीं रहने लायक।

और हमारे नेता, हमारे रहबरनीरो की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जो रोम जलने के दौरान बाँसुरी बजाने में मस्त था; या फिर, फ्राँसीसी क्रान्ति के पूर्व बोर्बोन्स की भांति व्यवहार कर रहे हैं। ऐसे समय में मुझे याद आता है 20 अप्रैल 1653 का दिन, जब ऑलिवर क्रॉमवेल अपने सैनिकों के साथ ब्रिटिश संसद में घुसा था और वहां मौजूद सदस्यों से उसने कहा थाः

यह मेरे लिए सही मौका है, आपके बैठने की इस जगह को खत्म कर देने का, जिसे आपने हर तरह से अपमानित किया है, अपनी बुरी आदतों से अपवित्र किया है। आप अराजक लोग हैं। अच्छी सरकार के दुश्मन हैं। किराये के टट्टू हैं। अभागों के झुण्ड हैं। आप चाहते हैं कि इसाउ आपके देश को आलुओं के भाव बेच दे, जैसे चन्द रुपयों के लिए जूडस ने अपने प्रभु को धोखा दिया था।

क्या आपके अंदर एक भी अच्छा गुण बचा है? क्या ऐसा एक भी अवगुण बचा है, जो आपमें नहीं है? आप तो उतने धार्मिक भी नहीं रहे, जितना मेरा घोड़ा है। सोना आपका भगवान है, रिश्वत के लिए आप में से किसने अपना विवेक नहीं खत्म कर डाला है? क्या आपके बीच ऐसा कोई व्यक्ति है, जिसे राष्ट्रमण्डल की बेहतरी की जरा-सी भी चिन्ता है? आप अनैतिक लोग! क्या आपने इस पवित्र स्थल को अपवित्र नहीं किया है? आपके अनैतिक सिद्धान्तों और दुष्ट कारनामों ने इस ईश्वर के मंदिर को चोरों के अड्डे में तब्दील नहीं कर दिया है?

आपलोग पूरे राष्ट्र के लिए अप्रिय और असह्य हो गये हैं। आपको जनता ने अपनी शिकायतों के निवारण के लिए यहां रखा था, और आप यह सब भूल गये। इसलिए, इन सस्ते-चमकते आभूषणों को छीन लो और दरवाजों को बन्द कर दो। किसी अच्छी चीज के लिए आप यहां बहुत देर तक बैठ लिये। मैं कहता हूँ- हटिए। ईश्वर के लिए यहां से जाईए।

सैनिकों ने एसेम्बली हॉल से सभी सांसदों को बाहर निकाल दिया और फिर वहां ताला लगा दिया। मुझे लगता है कि भारतीय संसद का भी यही हाल होनेवाला है। व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अब जरूरी हो गया है। अब टालमटोल नहीं चलेगा। संविधान अब शक्तिहीन हो गया है। भारत की पूरी व्यवस्था, हमारे इंस्टीट्यूशन्स समेत, एक ऐसे मकान की तरह हो गया है, जो पूरी तरह से जीर्ण-शीर्ण है। पुनरुद्धार से कुछ भी हासिल नहीं होगा। पहले इसे ध्वंस करें, फिर नवनिर्माण, यही समय की पुकार है। हमें नयी न्यायोचित समाज व्यवस्था बनानी है, जहां सिर्फ मुट्ठी भर नहीं, बल्कि हर एक इन्सान एक अच्छी जिंदगी जिये।

लेकिन इसे इस व्यवस्था के भीतर से हासिल करना मुमकिन नहीं है। हमारे देश की समस्याओं का समाधान इस व्यवस्था के बाहर है। इसका मतलब हुआ कि हमें एक किस्म की फ्राँसीसी क्रांति करनी होगी।

(सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व-न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजु का एक विशेष आलेख 23 अगस्त 2015 के प्रभात खबरमें अनूदित होकर प्रकाशित हुआ था- मूल आलेख अँग्रेजी समाचार पत्रिका आउटलुकके स्वाधीनता दिवस विशेषांक’ 2015 में छपा था। उसी के कुछ अंश।)

***

अन्त में, 29 जुलाई 2012 के प्रभात खबरमें प्रकाशित डॉ. एन.के. सिंह के आलेख आने ही वाला है धरती का टिपिंग प्वाइण्टका जिक्र, जिसमें बताया गया था कि धरती के 43 प्रतिशत जंगल समाप्त हो चुके हैं; 2025 तक 50 प्रतिशत जंगल समाप्त हो जायेंगे। इसके बाद हम चाह कर भी अपने पर्यावरण को पहले-जैसा नहीं बना पायेंगे। इसे वैज्ञानिकों ने ‘Point to No return’ कहा है।

यानि, हमारे पास समय ज्यादा नहीं बचा है!

 


भूमिका

 यह घोषणापत्र क्या है?

यह घोषणापत्र देश की प्रायः सभी समस्याओं का विन्दुवार (To the Point) समाधान सुझाता है और समग्र रूप से खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली भारत के निर्माण का खाका (Blueprint) प्रस्तुत करता है।

 

यह खाका लागू कैसे होगा?

इसके लिए देश में 10 वर्षों के लिए एक नये प्रकार की शासन-प्रणाली कायम करनी होगी, जिसका नाम ‘भारतीय राष्ट्रीय सरकार’ रखा जा रहा है। इस शासन-प्रणाली के तीन प्रमुख अंग होंगे- 1. प्रधानमंत्री (Prime Minister), 2. मंत्री-परिषद (Cabinet) और 3. मंत्री-सभा (Council)। तीनों की व्याख्या नीचे दी जा रही हैः

प्रधानमंत्रीः एक जागरुक आम नागरिक को दस वर्षों के लिए देश का प्रधानमंत्री नियुक्त करना होगा। विद्वानों की एक मंत्री-परिषद एवं मंत्री-सभा के मार्गदर्शन एवं नियंत्रण में काम करते हुए वह प्रधानमंत्री प्रस्तुत घोषणापत्र को लागू करेगा और देश को खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली राष्ट्र बनायेगा। दस वर्षों के बाद एक आदर्श चुनाव का अयोजन करवा कर वह देश में सही मायने में एक लोक’-तांत्रिक या जन’-तांत्रिक व्यवस्था कायम करेगा— वैसे, लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत पाँचवें वर्ष से ही हो जायेगी (कृपया घोषणा क्रमांक- 1.7 देखें)।

जिस नागरिक को प्रधानमंत्री नियुक्त किया जायेगा, उसमें कुछ मानवोचित एवं नायकोचित गुण तो होने ही चाहिए, साथ ही, निम्न तीन गुण जरूर होने चाहिए- 1. देशभक्ति, 2. ईमानदारी और 3. साहस।        

मंत्री-परिषदः प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन तथा उस पर नियंत्रण रखने के लिए एक चौदह-सदस्यीय मंत्री-परिषद का गठन किया जायेगा। मंत्री-परिषद में निम्न 14 विषयों/क्षेत्रों के विशेषज्ञ/विद्वान मौजूद होंगे- 1. किसानी, 2. मजदूरी, 3. खेल-कूद, 4. विज्ञान, 5. संस्कृति, 6. शिक्षा, 7. नारी-सशक्तिकरण, 8. विदेश-नीति, 9. राष्ट्रीय सुरक्षा, 10. संविधान/न्याय, 11. अर्थनीति, 12. पर्यावरण, 13. समाजसेवा और 14. लेखन/पत्रकारिता।         

मंत्री-परिषद के लिए जिन विशेषज्ञ/विद्वानों का चयन किया जायेगा, वे देश/समाज के वरिष्ठ, सम्मानित एवं सच्चरित्र नागरिक होंगे। इनके चयन के लिए देश के सभी भाषाओं के अखबारों के सम्पादकों से सुझाव मँगवाये जायेंगे। सम्पादकगण चाहें, तो अपने निजी सुझाव के साथ एक जनमत-सर्वेक्षण करवा कर उसके परिणाम भी संलग्न कर सकेंगे। इसके अलावे, सोशल-मीडिया पर भी एक सर्वेक्षण करवाया जा सकता है।

प्रस्तुत घोषणापत्र की बातों के अलावे किसी और मुद्दे पर निर्णय लेते समय प्रधानमंत्री के लिए मंत्री-परिषद के 14 में से कम-से-कम 9 सदस्यों (दो-तिहाई) की सहमति लेना अनिवार्य होगा।

इस मंत्री-परिषद को सिर्फ परिषदकहा जा सकता है।

मंत्री-सभाः परिषद के सदस्यगण अपने-अपने विषय/क्षेत्र से जुड़े 5 सहयोगी चुनेंगे। इन पाँच सहयोगियों में से किसी एक को वे अपना उत्तराधिकारी भी नामित करेंगे। परिषद के सदस्य स्वयं देश के जिस अंचल से आयेंगे, उस अंचल को छोड़कर बाकी पाँच अंचलों से एक-एक सहयोगी को वे चुनेंगे। (प्रस्तुत घोषणापत्र के अध्याय- 19 में देश के कुल छह अँचलों की बात कही गयी है— उत्तर-पूर्वांचल, पूर्वांचल, पश्चिमांचल, उत्तरांचल, दक्षिणांचल और मध्यांचल।) परिषद के सदस्यों से यह अपेक्षा की जायेगी कि वे अपने कम-से-कम तीन सहयोगियों की सहमति से ही कोई निर्णय लेकर उसे प्रधानमंत्री तक पहुँचायें।

परिषद के 70 सहयोगियों के समूह को मंत्री-सभा नाम दिया जायेगा और इसे सिर्फ सभाकहा जा सकेगा।

जटिल एवं महत्वपूर्ण मामलों पर विचार-विमर्श परिषदएवं सभाके संयुक्त अधिवेशनों में हुआ करेगा।

संयुक्त अधिवेशन के दौरान दो-तिहाई यानि 56— सदस्य मिलकर प्रधानमंत्री के किसी निर्णय को वीटोभी कर सकेंगे, बशर्ते कि वह निर्णय प्रस्तुत घोषणापत्र की बातों से बाहर का हो।

 

परिषद/सभा के सदस्यों से अपेक्षाः परिषद/सभा के सदस्यों से यह अपेक्षा रखी जायेगी कि वे प्रस्तुत घोषणापत्र और निम्न धारणाओं या विचारधाराओं के प्रति अपनी सहमति एवं प्रतिबद्धता व्यक्त करेंगेः-

1. वर्तमान औपनिवेशिकव्यवस्था को हटाकर इसके स्थान पर एक मौलिक एवं भारतीय व्यवस्था कायम करना।

2. नयी कायम होने वाली व्यवस्था को नेताजी सुभाष और शहीद भगत सिंह के विचारों/सपनों के अनुरूप बनाना।

3. शोषण, दोहन और उपभोग पर आधारित वर्तमान अर्थनीति के स्थान पर समता, पर्यावरण-मित्रता और उपयोग पर आधारित अर्थनीति को अपनाना।

4. भारतीय श्रमशक्ति, भारतीय प्रतिभा और भारतीय संसाधनों पर पूर्ण विश्वास- कि इनके बल पर भारत को खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली बनाया जा सकता है।

5. आवश्यकतानुसार सरकार द्वारा गरीबों, कमजोरों एवं आम लोगों के प्रति फूल से भी कोमलऔर अमीरों, ताकतवरों एवं खास लोगों के प्रति वज्र से भी कठोररवैया अपनाते हुए नीतियाँ बनाना।

6. सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर विश्वास- अर्थात् स्थानीय स्वशासनको सुदृढ़ बनाना।

7. भारत के नेतृत्व में एक आदर्श विश्व-व्यवस्था की स्थापना करने के लिए प्रयास करना।

 

क्या यह घोषणापत्र पत्थर की लकीर है?

नहीं, इसमें आवश्यकतानुसार तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलाव किये जायेंगे, मगर बदलाव नदी के बहते जल के समान होंगे- नदी के किनारे नहीं बदलते। प्रस्तुत घोषणापत्र में भी 1. देश की खुशहाली और 2. आम जनता की भलाई को ध्यान में रखते हुए ही बदलाव किये जायेंगे।

बदलाव जब प्रधानमंत्री करना चाहे, तो उसके लिए परिषद के 5 सदस्यों की सहमति आवश्यक होगी; और बदलाव जब परिषद या सभा के सदस्य लाना चाहें, तो संयुक्त अधिवेशन में दो-तिहाई का बहुमत आवश्यक होगा।

 

नयी शासन-प्रणाली कैसे कायम होगी?

आम तौर पर यह माना जाता है कि भारतीय कौम एक मुर्दा कौम है, ज्यादातर भारतीय लकीर के फकीर होते हैं, बनी-बनायी लीक से हटकर कुछ नया सोचना पाप समझते हैं और किसी बड़े परिवर्तन के लिए वे जल्दी राजी नहीं होते हैं, लेकिन चूँकि इसी देश में नेताजी सुभाष और भगत सिंह-जैसे क्रान्तिकारी भी पैदा होते हैं, इसलिए यह आशा की जा सकती है कि भारतीय नागरिकों व सैनिकों के बीच 2-4 प्रतिशत ऐसे लोग जरूर मौजूद हैं, जो जागरूक हैं, देश के वर्तमान एवं भविष्य को लेकर सोच-विचार करते हैं और जो यह मानते हैं कि देश की व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।

यही 2-4 प्रतिशत नागरिक व सैनिक अगर चाह लें, तो 10 वर्षों के लिए उपर्युक्त शासन-प्रणाली को कायम करने का रास्ता निकाला जा सकता है— कुछ उसी तरह, जैसे बर्फ के पिघलने के बाद पानी अपना रास्ता स्वयं खोज लेता है।

विषय सूची

प्रस्तावना

भूमिका

1. शासन-प्रशासन

2. अलगाववाद, आतंकवाद तथा भेद-भाव के खिलाफ

3. भ्रष्ट-चौकड़ीका निर्वासन

4. उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार नियंत्रण

5. निचले स्तर पर भ्रष्टाचार नियंत्रण

6. सबके लिए रोजगार

7. सरकारी खर्च

8. भारतीय राष्ट्रीय सरकारी वेतनमान

9. रुपये का मूल्य

10. काला धन

11: विमुद्रीकरण

12. कराधान

13: भारतीय राष्ट्रीय बैंक

14. आर्थिक विभाजन

15. कृषि

16. उद्योग-व्यापार

17. सरकारी काम-काज

18. भारत की नागरिकता

19. छह अँचलः चौवन राज्य

20. ग्राम-पंचायतों/वार्ड परिषदों का गठन

21. जनसंसदोंका गठन

22. विधायकों का चयन

23. सांसदों का चयन

24. संसद/विधानसभाओं में

25. प्रधानमंत्री का चयन

26. चुनाव-व्यवस्था

27. राज्यसभा

28. विदेश नीति

29. बेसहारों के लिए

30. नशा

31. स्वास्थ्य

32. महिला-सशक्तिकरण सह जनसंख्या-नियंत्रण

33. देह-व्यापार

34. खेल-कूद

35. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

36. शिक्षाः ढाँचा

37. शिक्षाः सामग्री

38. भारतीय कम्प्यूटर प्रणाली

39. मीडिया

40. अश्लीलता एवं कुरीतियाँ

41. भाषा

42. पर्यावरण

43. ऊर्जा

44. घटनास्थल पर तुरन्त न्याय

45. यौन अपराध

46. तीव्र एवं सस्ती न्यायिक प्रक्रिया

47. सजा का निर्धारण

48. आम रिहाई

49. आन्तरिक सुरक्षा (पुलिस)

50. प्रतिरक्षा (सेना)

51. रेलवे

52. सड़क

53. भारतीय राष्ट्रीय नागरिक पहचानपत्र

54. विविध

परिशिष्ट ’: राष्ट्रीय सरकारः सभा भवन, सत्र तथा कार्यवाही

परिशिष्ट- ’: 15 अगस्त तिथि की वास्तविकता

परिशिष्ट- ’: नये वेतनमान का खाका

परिशिष्ट- ’: फ्लाईओवर रेलवे

परिशिष्ट- ’: ‘जन-गण-मनबनाम शुभ सुख-चैन की बरखा

परिशिष्ट- ’: ‘ग्राम-पुत्र’ ‘ग्राम-पुत्रीअवधारणा

परिशिष्ट- ’: फसलों की खरीद-बिक्री व्यवस्था

1. शासन-प्रशासन

 शासन

1.1 देश में दस वर्षों के लिए कायम होने वाली नयी शासन-प्रणाली ‘भारतीय राष्ट्रीय सरकार’ को प्रस्तुत घोषणापत्र में अब से सिर्फ राष्ट्रीय सरकारकहा जायेगा।

1.2 राष्ट्रीय सरकार के सभा भवन, सत्र तथा कार्यवाही का विस्तृत विवरण परिशिष्ट- में दिया जा रहा है, जो काफी हद तक प्रत्यक्ष लोकतंत्र’-जैसा होगा।

1.3 राष्ट्रीय सरकार के पहले सत्र की पहली बैठक में चार महत्वपूर्ण घोषणाएं जारी की जायेंगी— नये राष्ट्र, नये संविधान, नयी व्यवस्था तथा भावी लोकतांत्रिकचुनावों पर।

1.4 नये राष्ट्र की घोषणाः 1947 के सत्ता-हस्तान्तरण अधिनियमको रद्द करते हुए तथा राष्ट्रमण्डल’ (कॉमनवेल्थ) की सदस्यता का परित्याग करते हुए 21 अक्तूबर 1943 के दिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा सिंगापुर में स्थापित स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकारको वैधानिक मान्यता दी जायेगी और नेताजी को स्वतंत्र भारत का पहला प्रधान- सांकेतिक ही सही- माना जायेगा। (ऐसा होने से 21 अक्तूबर हमारा स्वतंत्रता दिवस बन जायेगा। वर्तमान स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त की वास्तविकता जानने के लिए कृपया परिशिष्ट- देखें।)

1.5 नये संविधान की घोषणाः देशभर के विद्वानों को लेकर एक संविधान महासभाके गठन की घोषणा की जायेगी, जो नागरिकों से विचार मँगवाकर भारत-भारतीय-भारतीयता, शासन-प्रशासन, राष्ट्र-राज्य सम्बन्ध, नागरिक अधिकार एवं कर्तव्य, अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध, मानवता, न्याय इत्यादि से जुड़े मूलभूत, शाश्वत एवं सार्वभौमिक सिद्धान्तों के आधार पर एक नये संविधान का प्रारूप बनायेगी, इस प्रारूप पर देशभर में बाकायदे विचार-मन्थन होगा, आवश्यकतानुसार संशोधित प्रारूप प्रस्तुत किया जायेगा और अन्त में, 60 प्रतिशत से ज्यादा नागरिकों की सहमति से— जाहिर है, ‘जनमत संग्रहके बाद- इसे लागू किया जायेगा। (विशेष: 1. संविधान जब भी बनकर तैयार हो, इसे लागू 26 जनवरी के दिन ही किया जायेगा— इस प्रकार, यह दिन हमारा गणतंत्र दिवसबना रहेगा, 2. जब तक नया संविधान तैयार नहीं होता, वर्तमान संविधान के नीति-निदेशक तत्वप्रभावी रहेंगे, 3. संसद से पारित होने वाले कानून संविधान में दर्ज सिद्धान्तों की कसौटी पर खरे उतरने चाहिए— यह देखना न्यायपालिका का काम होगा और 4. पारित कानूनों की एक अलग संहिता बनेगी।)

1.6 नयी व्यवस्था की घोषणाः प्रस्तुत घोषणापत्र में एक नये सरकारी वेतनमान का (अध्याय- 8 में) जिक्र है, उसी के तहत लाखों की संख्या में युवाओं की बहाली करते हुए, उन्हें नये ढंग से प्रशिक्षित करते हुए उन्हीं के बल पर नयी ‘भारतीय राष्ट्रीय’- सैन्य, नागरिक (प्रशासन), पुलिस, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि सेवाओं के गठन की घोषणा की जायेगी। (विशेष: 1. जब तक भारतीय राष्ट्रीयसेवाओं के गठन का काम पूरा नहीं होता, वर्तमान औपनिवेशिकसेवाएं काम करती रहेंगी, 2. जैसे-जैसे भारतीय राष्ट्रीयसेवाओं के गठन का काम पूरा होते जायेगा, ‘औपनिवेशिकसेवाओं को समाप्त किया जायेगा और 3. औपनिवेशिकसेवाओं के कर्मी नये वेतनमानको अपनाते हुए राष्ट्रीय सेवाओंमें शामिल होने के लिए स्वतंत्र होंगे।)

1.7 भावी लोकतांत्रिक चुनावों की घोषणाः एक आदर्श चुनाव-व्यवस्था के तहत भावी लोकतांत्रिक चुनावों के लिए बाकायदे तिथियों की घोषणा की जायेगी- पाँचवें वर्ष में ग्राम-पंचायतों एवं वार्ड परिषदों के गठन के लिए; सातवें वर्ष में (प्रखण्ड-स्तरीय) जनसंसदोंके गठन के लिए; नवें वर्ष में विधानसभाओं के गठन तथा मुख्यमंत्रियों के चयन के लिए और दसवें वर्ष में राष्ट्रीय संसद के गठन और प्रधानमंत्री के चयन के लिए। (कृपया अध्याय- 20 से 26 देखें।)

1.8 पहले सत्र की पहली बैठक में ही भारतीय जनता की ओर से द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में नेताजी सुभाष की मदद करने के लिए जर्मनी और जापान राष्ट्रों के प्रति आभार एवं धन्यवाद प्रकट किया जायेगा।

1.9 कायदे से, राष्ट्रीय सरकार के गठन के तुरन्त बाद ही राज्यों की विधानसभाओं को भंग कर वहाँ भी राष्ट्रीय शासन लागू किया जाना चाहिए, मगर जनता की चुनी हुई सरकारों को अपना कार्यकाल पूरा करने का अवसर देते हुए राज्य सरकारों को वेतन-भत्तों-सुविधाओं तथा फिजूलखर्ची में कटौती करते हुए घाटे का बजट नहीं बनाने का निर्देश दिया जायेगा; मगर साथ ही, लगातार तीसरे वर्ष घाटे का बजट पेश करने वाली राज्य सरकार को बर्खास्त कर वहाँ राष्ट्रीय शासन लागू कर दिया जायेगा।

 

प्रशासन

1.10 प्रशासन, पुलिस, सेना तथा न्यायपालिका में ईमानदार, कर्मठ एवं सच्चरित्र छवि रखने वाले कार्यरत उच्चाधिकारियों को आमंत्रित कर भारतीय राष्ट्रीय सचिवालयका गठन किया जायेगा। (राष्ट्रीय सरकार द्वारा लिये गये निर्णयों को अमली जाम पहनाने की जिम्मेवारी इस सचिवालय की ही होगी।)

1.11 इसके विपरीत, प्रशासन, पुलिस, सेना तथा न्यायपालिका में दागदार छवि रखने वाले उच्चाधिकारियों को लम्बी छुट्टी पर भेज दिया जायेगा। (छुट्टी के दौरान उन्हें सिर्फ मूल वेतनदिया जायेगा।)

1.12 ईमानदार व दागदार छवि वाले उच्चाधिकारियों की सूची सतर्कता आयोग, मानवाधिकार आयोग और नागरिक अधिकार संगठनों से मँगवायी जायेगी। (नागरिक भी ऐसे अधिकारियों की सूचना इन संस्थाओं को दे सकेंगे।)

1.13 नागरिक (प्रशासनिक) अधिकारियों को सिर्फ प्रशासनिक विभागों का मुखिया बनाया जायेगा; दूसरे विभागों वे सिर्फ प्रशासनका काम देखेंगे; किसी भी विभाग का मुखिया उस विभाग के विषय के किसी विशेषज्ञ को ही बनाया जायेगा— कृपया ‘परिषिष्ट- इ’ देखें— वहाँ नयी खोज या नया आविष्कार करने वाले, किसी क्षेत्र/विधा में देश का नाम रोशन करने वाले और ओलिम्पिक खिलाड़ी को बाकायदे अधिकारी बनाने का जिक्र है।  

1.14 ‘भारतीय राष्ट्रीय नागरिक सेवाओं’ (अब का आई.ए.एस.) की परीक्षाओं में उन्हीं युवाओं को शामिल होने दिया जायेगा, जिन्होंने सामाजिक कार्यों’, ‘सांस्कृतिक गतिविधियोंऔर साहसिक अभियानोंमें भाग लिया हो। (विशेष: आगे चलकर सामाजिक कार्य के रूप में बेसहारों के लिए स्थापित होने वाले आश्रयों (क्रमांक- 29.4) में स्वयंसेवा’; सांस्कृतिक गतिविधियों के रूप में प्रतिवर्ष बसन्त एवं शरत् ऋतु में आयोजित होने वाले भारतीय सभ्यता-संस्कृति उत्सवों (क्रमांक- 54.6) में भागीदारी, और साहसिक अभियान के रूप में साइकिल पर देशाटन (क्रमांक- 52.4) को अनिवार्य किया कर दिया जायेगा।)

1.15 पुलिस द्वारा नागरिक या नागरिक समूह पर बल-प्रयोग करने और नागरिकों की गिरफ्तारी/हिरासत से पहले न्यायपालिका (या सतर्कता-मजिस्ट्रेट’- जिक्र अध्याय- 5 में) की अनुमति अनिवार्य कर दी जायेगी।

1.16 घोषित, संगठित, भूमिगत तथा फरार अपराधियों की गिरफ्तारी या इनपर बलप्रयोग के लिए किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी; बल्कि इनके खिलाफ एक विशेष अभियान चलाकर इन सबको सलाखों के पीछे पहुँचाया जायेगा।

1.17 आग्नेयास्त्रों के लाइसेन्स अगले आदेश तक के लिए निलम्बित करते हुए वैध-अवैध सभी प्रकार के आग्नेयास्त्र जमा/जब्त किये जायेंगे- हालाँकि वैध हथियारों के मामले में किसी की गिरफ्तारी नहीं की जायेगी।

प्रस्तावना

  सड़े हुए पुरातन से चिपके रहना मोह है मित्रों! चारों तरफ से दुर्गन्ध आ रही है। समाज-व्यवस्था हो , शासन-व्यवस्था हो , शिक्षा-व्यवस्था हो , चि...